Monday, June 22, 2009

दिल्ली

बहुत दिनों बाद
निकल अपने से बहार
खिड़की से झाँक रही हूँ ,
दिल्ली को देख रही हूँ ,
दिल्ली जो एक लंबा इतिहास लिए
भविष्य के असंख्य वादों की भरमार लिए
भाग रही है,
मैट्रो की तीव्र गति सी हांफ रही है ,
कोई रुकता नहीं
कि
पूछूं कहाँ जा रहे हो
सुबह शोर वाहनों का
शाम ज़ोर झूमते मस्तानों का
कोई सुनता ही नहीं कि
पूछूं पता इनकी मंजिल का
क्या है वहां
जो निगल गया बचपन मुस्कानों का
तोड़ बना रिश्तों की रेशमी गठानों का
सुंदर तो बहुत कुछ है
है मगर बेजान और बेजुबान
ओ मेरे देश के नौजवान
रुको सोचो ज़रा
किसके लिए कमा रहे हो
अनाथ बचपन के लिए ?
या आस लिए बूढी आंखों के लिए ?
किसके लिए यों भागे जा रहे हो ?

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