कई बार जीवन में यों लगा
टूट गई हूँ
टूट कर बिखर गई हूँ --इस धरा पर
आँखें बंद की हैं
यह सोच कि यह जीना भी क्या जीना ?
पर न जाने कौन
इन टूटे बिखरे टुकडों को समेट ता है
मेरी आँखें खोल मुझे दिखाता है
देख यह क्या टूटा है
यह तू नहीं
तेरे बनाये ताश के महल थे
उन ताश के पत्तों की गद्दी सी
फिर मेरे सिरहाने रख देता है ,
ले फिर से संजो सपने
जन्म दर जन्म
संजोती रह , तब तक , जब तक
यह सच न हो जायें
सच्चाई यां , संस्कृतियाँ , सभ्य ताएँ
पहले सपना बन कर उभरती हैं
कल्प नाएँ बन कर जन्म लेती हैं
विचार बन भाप हवा में जाते हैं
फिर बादल बन धरा पर बरसते हैं
मेरे टूट कर बिखरने का
अहसास ख़त्म होने लगता है
एक नई किरण फूटने लगती है
उषा की लाली सा आभास होने लगता है
हाँ अवश्य एक दिन
मेरे देश का हर बच्चा पड़ेगा
हर जवान को काम मिलेगा
बुरा ई तो मरती नहीं
पर भरष्टाचार का सर अवश्य कुचलेगा
अपने देश की संस्कृति के सम्मान में
पनपेगी आने वाली पीड़ी
लिए मशाल हाथ में
बुद्ध और गाँधी की संतान
दीप जलाएगी स्नेह के , सत्य के
विशव शान्ति के पथ पर
मरेंगे हम
मगर नहीं मरेगें यह सपने
इन सपनों को बादल बन बरसना है ॥
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Kitnaa achha hua ki, aapka blog maine kholke dekha, warna, ise padhne se mehroom reh jaatee aur bohot kuchh kho baithtee...!
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Aapka mere blog pe intezaar hai!
sapane to aas hai zindagi kee. narayan narayan
ReplyDeleteacchi prastuti thanks
ReplyDeleteअच्छी अभिव्यक्ति व सुन्दर रचना
ReplyDeleteक्या खूब लिखा है
ReplyDeleteबहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
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