एक हार का दरद है
जो मूर्तियाँ गढ़नी चाही मैनें
वह बन बन कर टूट गई हैं ॥
जाने मिटटी ख़राब थी
कदाचित मुझे बनाना नहीं आता था
अवश्य जल की मात्रा अधिक थी
हवा का रुख तेज़ था
मेरी समझ का भी फेर रहा होगा ॥
सोचती हूँ , जूझती हूँ ,
रोती हूँ कई बार
क्यूँ वह बन बन कर टूट गई हैं ॥
कैसा असमर्थ है इन्सान
नियति का अर्थ भी नहीं जानता
उससे लड़ने को संघर्ष करने को
तय्यार है हरदम ,अपने को
निर्माता, भाग्य विधाता सोच लेता है ॥
गिरता है , उठता है ,
संघर्ष करता है हरबार
कैसें वह बन बन कर टूट गई हैं ॥
तभी तो टूटता है
बिखरता है, रोता है
बिलखता है , दरद से कराहता है
चला जाता ,फिर आता है
पर प्रकृति के सत्य को समझना नहीं चाहता ॥
बनता है , टूटा है ,
यही सावाल पूछता है हर बार ,
क्यूँ वह बन बन कर टूट गई हैं ॥
Friday, June 19, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment