जब कभी क्रोध आता है
अपनों पर बेगानों पर
अपने ही बनाये समाज के
व्यवहारों पर ,संस्कारों पर ,
देश की दिशा बिगाड़ते
राजनैतिक ठेकेदारों पर
इस पूरे बिगडे महौल और
अपनी ही चुनी हुई सरकारों पर ।
निराशा सी भरने लगती है
कुछ न कर सकने पर
आवाज़ उठती है भीतर से कहीं
एक चिंतन कर अपने विचारों पर
माँ कहा करती थी
यों ही कोई अपना "नाम' पाता नहीं
प्रभु का बनाया हर रूप हर नाम
बिना किसी अर्थ के धरती पर आता नहीं ।
यह चिंतन अपने नाम का
मेरा क्रोध शांत करने लगता है
मेरा नाम मेरे आकार पर
मेरे स्वरूप पर छाने लगता है ,
प्रभु सृष्टि चलती रहेगी तेरे मेरे जाने के बाद
तुम अपने नाम का करो विस्तार
यह नाम तुम्हे किसी लक्ष्य से मिला
इस संसार में आने के बाद ॥
Sunday, June 21, 2009
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