सविता के धरती पर पग
धरने से पहले ,एक दस्तक
होती है मेरे द्वार पर -
मानो कोई कहता है
उठो :;
ब्रहम महूर्त बेला है
सुनो पवन की मन भावन गूंज
चिडिओं की चहक
कलिओं की कुयांरी महक
देखो तारों की फीकी पड़ती चमक
पूर्व दिशा के आकाश की दमक
आत्म सात हो लो
प्रकृति के इस शांत स्निग्ध वातावरण से
और फिर सोचो ;
कौन हो तुम -
कहाँ से आई हो
मंजिल है क्या
जाना कहाँ -
यह सुबह से शाम तक
नश्वर काया का सजना संवारना
खाना पीना और मौज मस्ती
क्या यही जीवन ?
अपनों के सुख और दर्द
आसुओं और मुस्कानों के बीच जिन्दगी ढलती
क्या यही जीवन का सच ?
हाँ यह भी सच है जीवन का
मगर शंडभंगुर
पानी के बुलबुले सा
सागर की लहरों सा
याद रखना है
वह अन्तिम राह तो मूक अकेली है
वहां न कोई संगी न साथी है
तयारी रख
प्रकाशित कर मन इतना
की उस पथ जब पग धरो
अंधेरा न हो राहों मैं
दुल्हन सा सजा मन को
इधर आँख बंद हो
उधर जा मिलो पिया की बाँहों मैं । ।
Tuesday, June 16, 2009
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