मन कहता है
कविता लिखी नहीं जाती
वह फूटती -निर्झर झरने सी
कभी फूलों की मुस्कान की तरह
कभी तितली के रंग बिरंगे रंगों सी
जुगनूँ की छाप छोड़ती चमक की तरह
कभी पहाडों और चट्टानों का
सीना चीरती
बह उठती है गंगा के पावन स्त्रोत की तरह
प्रकृति भेज उसे काशी हरिद्वार
शांत कर देती उसके उदगार
मन के दलियारे से
गई हूँ गंगा किनारे
वहां से कुछ बूँदें
अलकों में समेट
कुछ छोटे छोटे कलश भर ला ई हूँ
उसके किनारे पड़े
छोटे चमकते कंकड़ बटोर लाई हूँ
मुखरित हुआ है मन
तुम्हें कुछ सुनाने चली आई हूँ ॥
Friday, June 19, 2009
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मन के उमन्गो को बधना बडा मुश्किल है
ReplyDeleteरचना बहुत अच्छी है,
मेरा भी मन चन्चल हो गया
अच्छा लगा आपके मन के भावों को सुनकर।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }