Saturday, June 20, 2009

साक्षी भाव

जी चाहता है
पक्षी बनूँ
udd जायूं दूर गगन में
ऊपर से देखूं , कैंसा दिखता है ये संसार ,
कैंसे ठीकरों पर बिक जाती है ममता
मिटटी के ढेर को दो भाईओं का प्यार लड़ता
कैंसे दहेज़ के नाम पर कोई जलाता , कोई जलता ,
कहीं चोरी है , सीना जोरी है , इमान यहाँ सबसे सस्ता ,
कुर्सी की दौड़ पकड़ में देश सिसकियाँ भरता
कैंसे दिन रात धरणी को मानव लहुलुहान करता ।
यों सोचते सोचते आँख लग गई
देखा पक्षी बन उड़ रही हूँ --गगन में
नीला आकाश धर रूप साकार
बाहें फैलाये अपनी ओर बुला रहा है ,
आओ देखो , जी भर कर देखो ,
धरणी के आँचल को
कुछ सहमें सहमें
मैंने नैन झुकाए
दूर तक नीला सागर शांत था
मानो नीले अम्बर की परछाई
सागर में सिमट आई थी
सागर की गहराई इतनी स्पष्ट तो देखी न थी
रत्नों के भण्डार थे
मछलियों के कितने रंग थे
उनकी अठखेलियाँ थी
किनारे पर लहरों का मचलना था
मानो किसी आँगन में नन्ही किलकारियों की मीठी झंकार
शांत सागर फैला था ।
कहीं कोई देश की सीमा न थी
पहरे नहीं दिख ते थे
दिखती थी हरियाली
हरे भरे मैदानों की बड़ी कतारें
फूलों की चहकती छोटी छोटी क्यारियां
आश्चर्य था --
भौरों की गूंजती आवाज़ सुनाई देती थी
कलियों की भीनी भीनी महक भली लग रही थी
नदिओं का कल कल स्वर
उनका पहाडोको चीर कर निकलना
सागर से जा मिलना
सब कितना स्पष्ट दीख पड़ता था
आवाज़ एक और भी थी
कानों को भली लग रही थी
मन्दिर के घंटे थे
मुल्ला की बांग थी , या
चर्च की घंटियाँ
सब कुछ मिला मिला सा था
नव शिशु के आने का रोना
और शमशान से आती दुःख भरी आवाजे
दोनों ऊपर आते आते
एक सी हो गई थी ।
मैं सोच रही थी
कहाँ गए
वह मानव के हैवानो से दंगे
धरम के नाम के फसाद
कुर्सी के झगडे
वह रिश्तों का विष
नातों के बंधन
कुछ भी तो न था , कहीं भी तो न था ।
मैं कौन सा संसार देख रही थी
जहाँ प्रकृति का अपूर्व सौंदर्य फैला था
एक नीरव स्निग्ध शांत मय आनंद
आँख खुल गई है
सोच रही हूँ
क्या सच है
ये जो मेरे सामने है,
आस पास है ,
या वह सपना
वह सब भी तो सत्य ही था ॥

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