जो यह दर्द न होता
कष्ट न होते
कोई दुःख न होता
तो क्या होता
इन्सान इक माटी का पुतला होता ।
फिर अपने भी कहाँ होते
उनके दिए ज़ख्म भी न होते
आंसूं भी न होते
तो क्या होता
इन्सान पागल सा हरदम हँसता होता ।
समाज के बनाये यह फ़र्ज़ न होते
सृष्टि के अपने नियम न होते
इन्सान अपने कर्मों से
बंधा न होता
हर कोई अपने को खुदा समझता होता ।
फिर प्यार कहाँ होता
नफरत का संसार कहाँ होता
अनुभव भी न होते
तो क्या होता
इन्सान बस साँस लेती मूर्त होता ।
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अगर ये सब न होता तो.............
ReplyDeleteज़िन्दगी जीने लायक न होती.............
ज़िन्दगी ज़िन्दगी ही न होती.............
आपका धन्यवाद !
प्रेम जी
ReplyDeleteसादर
समूचा जीवन ही सापेक्ष है
बहुत सुन्दर ढंग से आपने सार्थक तरीके से इस सापेक्षता को रेखांकित किया है.
जो यह दर्द न होता
ReplyDeleteकष्ट न होते
कोई दुःख न होता
तो क्या होता
इन्सान इक माटी का पुतला होता ।
DARD HOTA HAI TABHI TO SUKH KA EHSAS HAI VARNA SUKH KI KOI KADR NA HOTI .... BAHOOT HUNDAR LIKHA HAI ...
hello mam..
ReplyDeletenice...
जीवन का कोई न कोई आधार जरूर है.....
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! बधाई!
ReplyDeleteआंसूं भी न होते
ReplyDeleteतो क्या होता
इन्सान पागल सा हरदम हँसता होता
profound and beautiful as always.
Manjul
आंसूं भी न होते
ReplyDeleteतो क्या होता
इन्सान पागल सा हरदम हँसता होता
profound and beautiful as always.
Manjul