ऐंसा अक्सर होता है
कहीं खो जाती हूँ
मानो किसी गहरी -
कहीं खो जाती हूँ
मानो किसी गहरी -
नींद में सो जाती हूँ
या यों कहो -जगत प्रपंच की
रिश्तों की भीड़ में खो जाती हूँ
जीवन के नित नियम में
उलझ कर रह जाती हूँ
जानती हूँ ,कितनी सौतेली हो
जाती हूँ अपने आप से
लावारिस भटकने देती हूँ इसे
इसका क्रंदन सुनाई तो देता है
पर न जाने कहाँ होती हूँ
बस जीवन यों ही
चार सीढ़ी कभी चढ़
दो नीचे उत्तर और कभी
दो चढ़ और चार उतर
रिश्तों की भीड़ में खो जाती हूँ
जीवन के नित नियम में
उलझ कर रह जाती हूँ
जानती हूँ ,कितनी सौतेली हो
जाती हूँ अपने आप से
लावारिस भटकने देती हूँ इसे
इसका क्रंदन सुनाई तो देता है
पर न जाने कहाँ होती हूँ
बस जीवन यों ही
चार सीढ़ी कभी चढ़
दो नीचे उत्तर और कभी
दो चढ़ और चार उतर
का खेल तमाशा है
क्यूँ हम धीरे धीरे
सीढ़ीदूर सीढ़ी चढ़ना सीखते नहीं
सीढ़ीदूर सीढ़ी चढ़ना सीखते नहीं
क्यूँ हम धीरे धीरे
ReplyDeleteसीढ़ीदूर सीढ़ी चढ़ना सीखते नहीं
या हम सीखते नही या सीखना नही चाहते ... जीवन जीने के सरल रास्ते पर हम जाना नही चाहते ... बहुत समय बाद लिखा है आपने .. बहुत अच्छा लिखा ....