Friday, September 17, 2010

बेनाम भाव

अध्यातम का दंभ
इच्छायों की गठरी
कर्मों की काली रातें
राह के पत्थर
कदम बढ़ें तो कैंसे बढ़ें ।
एक और मूक अँधियारा
बड़े शहरों की
बड़ी बड़ी बतियों
से चौंधियाई आँखें
भला कुछ देखें तो कैंसे देखें ।
जग का इतना शोर
त्राहि त्राहि करता जन मानस
भीतर से अनबुझी
प्यास की बगावत
किसी की भला सुने तो कैंसे सुने ।
यह कोई सत्य या
सत्य से भागने का बहाना
या मन की कोई चाल
इस मन से ही बेगाने
मन की उलझन सुलझे तो कैंसे सुलझे ॥