Friday, September 17, 2010

बेनाम भाव

अध्यातम का दंभ
इच्छायों की गठरी
कर्मों की काली रातें
राह के पत्थर
कदम बढ़ें तो कैंसे बढ़ें ।
एक और मूक अँधियारा
बड़े शहरों की
बड़ी बड़ी बतियों
से चौंधियाई आँखें
भला कुछ देखें तो कैंसे देखें ।
जग का इतना शोर
त्राहि त्राहि करता जन मानस
भीतर से अनबुझी
प्यास की बगावत
किसी की भला सुने तो कैंसे सुने ।
यह कोई सत्य या
सत्य से भागने का बहाना
या मन की कोई चाल
इस मन से ही बेगाने
मन की उलझन सुलझे तो कैंसे सुलझे ॥

7 comments:

  1. यह कोई सत्य या
    सत्य से भागने का बहाना
    या मन की कोई चाल
    इस मन से ही बेगानेजही है
    मन की उलझन सुलझे तो कैंसे सुलझे ॥


    बहुत सुन्दर रचना ...
    कहा सुलझी है मन कि उलझाने आज तक ....

    -----------
    इसे भी पढ़े :- मजदूर

    http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html

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  2. बहुत भावपूर्ण!

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  3. यह कोई सत्य या
    सत्य से भागने का बहाना
    या मन की कोई चाल
    इस मन से ही बेगाने
    मन की उलझन सुलझे तो कैंसे सुलझे ॥
    Sach aisee uljhanon me ham fans jate hain,ki,ubharna mushkil hota hai...bahut dinon baad aapko padha..bada achha laga!

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  4. किसी भी इंसान के मन की कशमकश को शब्द दे दिए हैं आपने .....

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  5. man ki rassakashi ko khoobi se ukera hai aapne!

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  6. इच्छाओं की गठरी
    कर्मों की काली रातें
    राह के पत्थर
    कदम बढ़ें तो कैसे बढ़ें ?


    बहुत भाव भरी रचना है … अभार !

    आपको मेरी कुछ पंक्तियां सादर समर्पित हैं …

    शून्य हों संवेदनाएं ; स्वयं से संवाद कर !
    पथ की बाधाओं का निज पद - चाप से प्रतिवाद कर !
    हो जहां वीभत्स विप्लव ; सौम्य - शुभ - संधि सजा !
    क्षरण में बासंती पुष्पन - पल्लवन के गीत गा !!

    सुन मनुज ! उत्थान उन्नति उन्नयन के गीत गा !
    जब प्रलय तांडव करे … तब , नव सृजन के गीत गा !!


    शुभाकांक्षी
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  7. बहुत सुन्दर कविता...बधाई.

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    'पाखी की दुनिया' में अंडमान के टेस्टी-टेस्टी केले .

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