अध्यातम का दंभ
इच्छायों की गठरी
कर्मों की काली रातें
राह के पत्थर
कदम बढ़ें तो कैंसे बढ़ें ।
एक और मूक अँधियारा
बड़े शहरों की
बड़ी बड़ी बतियों
से चौंधियाई आँखें
भला कुछ देखें तो कैंसे देखें ।
जग का इतना शोर
त्राहि त्राहि करता जन मानस
भीतर से अनबुझी
प्यास की बगावत
किसी की भला सुने तो कैंसे सुने ।
यह कोई सत्य या
सत्य से भागने का बहाना
या मन की कोई चाल
इस मन से ही बेगाने
मन की उलझन सुलझे तो कैंसे सुलझे ॥
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यह कोई सत्य या
ReplyDeleteसत्य से भागने का बहाना
या मन की कोई चाल
इस मन से ही बेगानेजही है
मन की उलझन सुलझे तो कैंसे सुलझे ॥
बहुत सुन्दर रचना ...
कहा सुलझी है मन कि उलझाने आज तक ....
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इसे भी पढ़े :- मजदूर
http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html
बहुत भावपूर्ण!
ReplyDeleteयह कोई सत्य या
ReplyDeleteसत्य से भागने का बहाना
या मन की कोई चाल
इस मन से ही बेगाने
मन की उलझन सुलझे तो कैंसे सुलझे ॥
Sach aisee uljhanon me ham fans jate hain,ki,ubharna mushkil hota hai...bahut dinon baad aapko padha..bada achha laga!
किसी भी इंसान के मन की कशमकश को शब्द दे दिए हैं आपने .....
ReplyDeleteman ki rassakashi ko khoobi se ukera hai aapne!
ReplyDeleteइच्छाओं की गठरी
ReplyDeleteकर्मों की काली रातें
राह के पत्थर
कदम बढ़ें तो कैसे बढ़ें ?
बहुत भाव भरी रचना है … अभार !
आपको मेरी कुछ पंक्तियां सादर समर्पित हैं …
शून्य हों संवेदनाएं ; स्वयं से संवाद कर !
पथ की बाधाओं का निज पद - चाप से प्रतिवाद कर !
हो जहां वीभत्स विप्लव ; सौम्य - शुभ - संधि सजा !
क्षरण में बासंती पुष्पन - पल्लवन के गीत गा !!
सुन मनुज ! उत्थान उन्नति उन्नयन के गीत गा !
जब प्रलय तांडव करे … तब , नव सृजन के गीत गा !!
शुभाकांक्षी
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत सुन्दर कविता...बधाई.
ReplyDelete________________
'पाखी की दुनिया' में अंडमान के टेस्टी-टेस्टी केले .