Tuesday, June 30, 2009

मुझे प्रतीक्षा है उस दिन की

मुझे ऐंसे लगता है ,
मेरे अंदर एक गहरा
उदगार का सागर है,
जो बाहर आना चाहता है ,
जो बाहर नहीं आता
न जाने क्यूँ ,
कभी राह नहीं मिलती
कभी समय नहीं होता ,और
कभी थाह नहीं मिलती ।
ज्यों दूध उबलता है
मगर कोई सतर्क पहरी
उसके गिरने से पहले
नीचे की ज्वाला को शांत कर देता है ।
ज्यों तूफान उठता तो है ,
बिना आवाज़ किए शांत हो जाता है ।
लहरें उठती तो हैं ,
बिना किनारों से टकराए
लौट जाती हैं ।
मुझे डर है ,
एक दिन ज्वाला मुखी
फटेगा ,उगलेगा ,

बन जावा फैलेगा ,
मगर क्या वह संचित दुःख होगा
या कोई कुंठाएं होगी
या अभिभूत स्नेह का सागर होगा
मुझे प्रतीक्षा है उस दिन की
धरती को कष्ट होगा कितना भी

वातवरण सहयोग नहीं देगा जितना भी ,
परन्तु ज्वाला मुखी फूटेगा
उबलेगा रतन अनमोल
मानवता पनपेगी

स्नेह फैलेगा ॥

Friday, June 26, 2009

आंसूं --एक नई पहचान

आंसुओं के कई रूप देखे हैं
जीवन में कई बार आए
कभी दरद ले गए
कभी दे गए
कभी मन हल्का किया है इन्हों ने
कभी इक भार दे गए
कैंसे ममता की अंगडाई यां भर भर कर बहे,
कभी माता पिता के स्नेह से वंचित
दुःख के चीत्कार बने ये आंसू,
कैंसे खुशी से भर आई आँखों से
दब्दाबाए ये आंसू परन्तु
इस बार नई पहचान दे गए ये आंसू
प्रातः ध्यान में प्रभु के सर झुकाया था
निर्झर झरने से बह उठे
प्रश्न उठा __?
ये कैंसे और क्यूँ बहे आंसू
मगर उत्तर कहाँ था __?
बड़ी देर तक
कई दिन तक
ध्यान में सर झुकाऊं
बह उठे सरिता के जल से ये आंसू
सोचा __
मन में रोष अवश्य है
रिश्तों के झूठे बंधन का
द्वेष भी अवश्य है
जीवन प्रश्नों के मंथन का
दुःख और शोक कैंसा __?
जीवन के सत्य -दर्शन का
फिर ये क्रंदन कैंसा __?
पर क्या ये क्रंदन था __?
लगता था
मानो शिव की जट्टाओं से निकली गंगा
उत्तर आई थी आंखों में
तन मन नहा उठा था
इस पावन धरा में
जब ये रुके आंसू
तो कितना अन्तर था __
कहाँ गए
कौन ले गया था वह बहता निर्झर जल
कहाँ था वह रोष ,द्वेष
शोक और दुःख
इस बार स्वछता ,नीरवता
आनंद दे गए थे वह आंसू
अपनी एक नई पहचान दे गए थे ये आंसू ॥

Thursday, June 25, 2009

कभी दर्द से दवा कड़वी होती

कभी रोग से
उपचार अधिक कष्ट भरा होता
दर्द से दवा
कड़वी होती
और वह कड़वा घूँट पीना एक मजबूरी ।
पैर में चुभे
कांटे को निकालने वाली सुई
पैर से खून
निकाल देती
मगर कांटा निकालना होता बहुत ज़रूरी ।
प्यार तो
एक बहुत ही सुंदर प्रभु मय भाव
बन मगर मोह
दुःख देता
चाहे अनचाहे बाँध लेती रिश्तों की डोरी ।
मानव मन
कितना भी समझ ले यह जगत रंग मंच
फिर भी अटक जाता
भटक जाता
जीवन की चाहतें कभी होती नहीं पूरी ।

एक तूफान

कुछ पुराने तूफान भी डायरी के पन्नों में कैद थे यह जीवन कीअसली सीढियां हैं जो इंसान को आगे बढाती हैं ____
एक तूफान था
झकझोड़ गया पेड़ पौधों
खेत खलिहानों को ।
बिखर गया भीतर कुछ
अंतस के तार तार हिल गए
शक्ति भी नहीं थी आंसूं बहाने को ।

हवा का तेज़ रुख था
टूटे दरों दीवार
तोडा ठौर ठिकानों को ।
कच्चे पक्के धागे टूटे
रिश्ते टूटे नाते टूटे
जोड़ गया कई अनजानों को ।

उड़ा ले गया अपने साथ
पुरानी टूटी जुड़ी सम्पदा
जर्जर हुए सामानों को ।
पुरानी अधूरी चाहें टूटी
मित्र छूते अपने रूठे
चोट पड़ी अरमानों को ।

वह समय का बिगुल था
जो समझ गए वह निकल गए
कुछ रह गए दफ्नानें को ।
प्रकृति का यही नियम
तोड़ती हैं ठोकती है
जगह मिलती है ठोस ठिकानों को ।

यह समय की सीख थी
बहुत कुछ मिटा गई
दे गई एक चाह सजाने को।
बनूँ अर्जुन तुम्हारे चरणों का
सम्र्पर्ण हो पूर्ण ऐंसा
हर दम रहूँ तैयार तीर चलाने को ।

Wednesday, June 24, 2009

सुखद महक

एक अनजानी डगर से आवाज़ आई है
मैं चल पड़ी हूँ , यह सोच कर
कि तुम्हारे सिवा और कौन पुकार देगा ।
राह अंधियारी है अपरिचित भी
मैं चली जा रही हूँ -विशवास के साथ
तुमने बुलाया है -तू प्रकाश भी देगा ।
फिजा में एक सुखद महक आई है
अनुभव कर रही हूँ -साँस भर कर
यह पथ भी तेरे घर का पता देगा ।
जो भी राह तेरे घर ले जाए
चलते रहना है - खुश हो कर
इन्सान भला इसके बाद और क्या पा लेगा ।
अनेकों रस्ते तो मन का भ्रम हैं
पाना तो है -मन का भीतर
पा लेगा तू सब कुछ जिस दिन समझ लेगा ॥

जीवन के मोड़

जीवन की राह पर कई मोड़ लिए हैं --
हर मोड़ पर यूँ लगा --यह राह ही मेरी मंजिल हो शायद
मेरा वह लक्ष्य हो
जिसे मैं पाना चाहती हूँ
मगर बस दो कदम
या कभी चार
कि
राह मुड जाती है _
मन कहता है
यह तो तेरी मंजिल नहीं ।
यह पगडंडियाँ
यह पहाडो के छोटे छोटे रास्ते
यह राह के झरनों का
अंजुली में भरा जल
तेरी मंजिल नहीं , लक्ष्य नहीं
यह तो सोपान हैं ,
संबल हैं
कभी तुम्हें नींद से जगाने के
कभी तुम्हारी तत्काल उठी प्यास को बुझाने के ।
तेरी यात्रा बाहर की नहीं
तेरी मंजिल कोई सागर या आकाश नहीं
तेरा लक्ष्य यह षण भंगुर संसार नहीं
तुम्हारी यात्रा भीतर की --गहरी ,
वह गहराई जिसका कोई अंत नहीं
असीमित अनंत
जिसकी कोई डोर नहीं ,कोई छोर नहीं
राह नहीं ,मोड़ नहीं
प्राप्ति का कोई शोर नहीं
अनंत में smana अनंत हो जाना ।

Monday, June 22, 2009

दिल्ली

बहुत दिनों बाद
निकल अपने से बहार
खिड़की से झाँक रही हूँ ,
दिल्ली को देख रही हूँ ,
दिल्ली जो एक लंबा इतिहास लिए
भविष्य के असंख्य वादों की भरमार लिए
भाग रही है,
मैट्रो की तीव्र गति सी हांफ रही है ,
कोई रुकता नहीं
कि
पूछूं कहाँ जा रहे हो
सुबह शोर वाहनों का
शाम ज़ोर झूमते मस्तानों का
कोई सुनता ही नहीं कि
पूछूं पता इनकी मंजिल का
क्या है वहां
जो निगल गया बचपन मुस्कानों का
तोड़ बना रिश्तों की रेशमी गठानों का
सुंदर तो बहुत कुछ है
है मगर बेजान और बेजुबान
ओ मेरे देश के नौजवान
रुको सोचो ज़रा
किसके लिए कमा रहे हो
अनाथ बचपन के लिए ?
या आस लिए बूढी आंखों के लिए ?
किसके लिए यों भागे जा रहे हो ?

मैं और मेरा मन

आज मन उदास है ----मैं नहीं
यह मैं और मेरा मन
नदिया के दो किनारे ----मालुम न था
मन कभी रोता और मैं हंसती हूँ
कभी यह हँसता है और मैं रोती हूँ
यह मेरे दो नैन कजरारे ----मालूम न था
कभी गूंजता किलकारियों से आँगन
कहीं सन्नाटा रोता मौत का क्रंदन
यह तो जीवन के साँझ सवेरे ------मालूम तो था
कभी मन रीझता बांसुरी की तानों में
कभी खो जाता मौन समाधि में
निराकार --साकार तेरे दो द्वारे ----मालूम तो था
आज मैं शांत हूँ --मेरा मन नहीं
मगर कोई सवाल नहीं
मन को भी तो यह मैं ही चलावे ----मालूम न था

Sunday, June 21, 2009

अपनों सी दस्तक दो --

एक अनुरोध सैनिक मां और पत्नी का ------

दीपक बुझ गए न जाने कितने घरों के
आयो उनके आँगन में दीप जलाएं
अँधियारा उनका तो मिटेगा जरूर
हमारे रास्ते भी प्रकाश से भर जायें ।


धीरे धीरे सिसकती है कोई मां कहीं
कितने सिदूर पोंछ देती है देश की हिफाज़त
जो देश का ऋण चुका गए
आयो हम उनके ऋणों का हिसाब ले आयें ।


देश पर जान देने वालों की कुर्बानी पर
अमर ज्योति पर फूल चड़ते हैं हर साल
उनकी याद में रोने वाले अब भी रो रहे
आयो उनके आंसूं पों छे - मुस्कान दे आयें ।


बस थोड़ा सा समय निकालो
उनके दरवाजे पर अपनों सी दस्तक दो
लगे कोई उनका अपना लौट आया है
उनकी बुझी बुझी जिंदगी में बहार आ जाए ।

काम अकेले तो नहीं होगा
कल्पनाएँ तो बस सपने होते हैं
सोच से सोच , हाथ हाथ मिले
तो तेरी मेरी सोच इक प्रवाह बन जाए ।

मेरा नाम "प्रेम"

जब कभी क्रोध आता है
अपनों पर बेगानों पर
अपने ही बनाये समाज के
व्यवहारों पर ,संस्कारों पर ,
देश की दिशा बिगाड़ते
राजनैतिक ठेकेदारों पर
इस पूरे बिगडे महौल और
अपनी ही चुनी हुई सरकारों पर ।
निराशा सी भरने लगती है
कुछ न कर सकने पर
आवाज़ उठती है भीतर से कहीं
एक चिंतन कर अपने विचारों पर
माँ कहा करती थी
यों ही कोई अपना "नाम' पाता नहीं
प्रभु का बनाया हर रूप हर नाम
बिना किसी अर्थ के धरती पर आता नहीं ।
यह चिंतन अपने नाम का
मेरा क्रोध शांत करने लगता है
मेरा नाम मेरे आकार पर
मेरे स्वरूप पर छाने लगता है ,
प्रभु सृष्टि चलती रहेगी तेरे मेरे जाने के बाद
तुम अपने नाम का करो विस्तार
यह नाम तुम्हे किसी लक्ष्य से मिला
इस संसार में आने के बाद ॥

Saturday, June 20, 2009

साक्षी भाव

जी चाहता है
पक्षी बनूँ
udd जायूं दूर गगन में
ऊपर से देखूं , कैंसा दिखता है ये संसार ,
कैंसे ठीकरों पर बिक जाती है ममता
मिटटी के ढेर को दो भाईओं का प्यार लड़ता
कैंसे दहेज़ के नाम पर कोई जलाता , कोई जलता ,
कहीं चोरी है , सीना जोरी है , इमान यहाँ सबसे सस्ता ,
कुर्सी की दौड़ पकड़ में देश सिसकियाँ भरता
कैंसे दिन रात धरणी को मानव लहुलुहान करता ।
यों सोचते सोचते आँख लग गई
देखा पक्षी बन उड़ रही हूँ --गगन में
नीला आकाश धर रूप साकार
बाहें फैलाये अपनी ओर बुला रहा है ,
आओ देखो , जी भर कर देखो ,
धरणी के आँचल को
कुछ सहमें सहमें
मैंने नैन झुकाए
दूर तक नीला सागर शांत था
मानो नीले अम्बर की परछाई
सागर में सिमट आई थी
सागर की गहराई इतनी स्पष्ट तो देखी न थी
रत्नों के भण्डार थे
मछलियों के कितने रंग थे
उनकी अठखेलियाँ थी
किनारे पर लहरों का मचलना था
मानो किसी आँगन में नन्ही किलकारियों की मीठी झंकार
शांत सागर फैला था ।
कहीं कोई देश की सीमा न थी
पहरे नहीं दिख ते थे
दिखती थी हरियाली
हरे भरे मैदानों की बड़ी कतारें
फूलों की चहकती छोटी छोटी क्यारियां
आश्चर्य था --
भौरों की गूंजती आवाज़ सुनाई देती थी
कलियों की भीनी भीनी महक भली लग रही थी
नदिओं का कल कल स्वर
उनका पहाडोको चीर कर निकलना
सागर से जा मिलना
सब कितना स्पष्ट दीख पड़ता था
आवाज़ एक और भी थी
कानों को भली लग रही थी
मन्दिर के घंटे थे
मुल्ला की बांग थी , या
चर्च की घंटियाँ
सब कुछ मिला मिला सा था
नव शिशु के आने का रोना
और शमशान से आती दुःख भरी आवाजे
दोनों ऊपर आते आते
एक सी हो गई थी ।
मैं सोच रही थी
कहाँ गए
वह मानव के हैवानो से दंगे
धरम के नाम के फसाद
कुर्सी के झगडे
वह रिश्तों का विष
नातों के बंधन
कुछ भी तो न था , कहीं भी तो न था ।
मैं कौन सा संसार देख रही थी
जहाँ प्रकृति का अपूर्व सौंदर्य फैला था
एक नीरव स्निग्ध शांत मय आनंद
आँख खुल गई है
सोच रही हूँ
क्या सच है
ये जो मेरे सामने है,
आस पास है ,
या वह सपना
वह सब भी तो सत्य ही था ॥

Friday, June 19, 2009

मन कहता है

मन कहता है
कविता लिखी नहीं जाती
वह फूटती -निर्झर झरने सी
कभी फूलों की मुस्कान की तरह
कभी तितली के रंग बिरंगे रंगों सी
जुगनूँ की छाप छोड़ती चमक की तरह
कभी पहाडों और चट्टानों का
सीना चीरती
बह उठती है गंगा के पावन स्त्रोत की तरह
प्रकृति भेज उसे काशी हरिद्वार
शांत कर देती उसके
उदगार
मन के दलियारे से
गई हूँ गंगा किनारे
वहां से कुछ बूँदें
अलकों में
समेट
कुछ छोटे छोटे कलश भर ला ई हूँ
उसके किनारे पड़े
छोटे चमकते कंकड़ बटोर लाई हूँ
मुखरित हुआ है मन
तुम्हें कुछ सुनाने चली आई हूँ ॥

कैसे तुम्हें बहलाऊं

तुम कहते हो
कुछ ऐसा लिखो
कि मस्ती का आलम छा जाए
बोलो सिसकती फिजायों में
मस्ती किस से मांगूं
बोलो क्या सुनायुं
कैसे तुम्हे बहलाऊँ ।
लो -फिजाओं को ही पकड़ लो
तो गीत नया बन
जाए
प्रकृति तो गोली बारूद
की
आवाजों से गूंगी हो गई
उस से क्या प्रेरणा पाऊँ
आज क्या गुन
गुनाऊं
कैसे तुम्हे बहलाऊँ ।
तो -समाज पर कुछ व्यंग हास लिख डालो
तो महफिल जम जाए
उसकी तो स्वयम ही
जीता जागता परिहास हूँ
महफिल में भला अपनी
खिल्ली स्वयं उडाऊं
कैसे तुम्हें बहलाऊं ।
हाँ -ऐसा अगर हो जाए
वेदना सारी पी कर
शिव की तरह नील कंठ हो जाऊँ
मैं मर मर कर जी जाऊँ
एंसे में स्वयम कुछ समझूं
कुछ तुम्हें समझाऊँ
एंसे तुम्हे बहलाऊँ
कैंसे तुम्हे बहलाऊँ ॥

आज ही आज यही पल जीवन है

रे मन बढ़ते रहने की कसम ले
बार बार पीछे मुड कर देखना क्या
राह चलते पत्थर चुभ सकते हैं
चलना है फिर तीसों से घबराना क्या ।
जीवन की गति पर अपना ज़ोर नहीं
फिर सपने क्यूँ उनका संजोना क्या ।
चलते रहना ही कला जीवन की
फिर जीत कैंसी और हारना क्या ।
खाली हाथ ही आया खाली ही जाएगा
फिर पाना किसे और खोना क्या ।
हर साँस के साथ मुस्कराए जा
जीना यही कौन जाने मरना क्या ।
मौत आदि है या कोई अंत
इस अनबुझी पहेली में उलझना क्या ।
मौत सबको आती ,हमको भी आएगी
उसकी आज से सोच करना क्या ।
आज ही आज यही पल जीवन है
जीए जा कल का भरोसा करना क्या ।
उस परम प्रभु की शरण ले ले
फिर कोई रोना क्यूँ और हँसना क्या ॥

एक हार का भ्रम

एक हार का दरद है
जो मूर्तियाँ गढ़नी चाही मैनें
वह बन बन कर टूट गई हैं ॥



जाने मिटटी ख़राब थी
कदाचित मुझे बनाना नहीं आता था
अवश्य जल की मात्रा अधिक थी
हवा का रुख तेज़ था
मेरी समझ का भी फेर रहा होगा ॥



सोचती हूँ , जूझती हूँ ,
रोती हूँ कई बार
क्यूँ वह बन बन कर टूट गई हैं ॥



कैसा असमर्थ है इन्सान
नियति का अर्थ भी नहीं जानता
उससे लड़ने को संघर्ष करने को
तय्यार है हरदम ,अपने को
निर्माता, भाग्य विधाता सोच लेता है ॥



गिरता है , उठता है ,
संघर्ष करता है हरबार
कैसें वह बन बन कर टूट गई हैं ॥



तभी तो टूटता है
बिखरता है, रोता है
बिलखता है , दरद से कराहता है
चला जाता ,फिर आता है
पर प्रकृति के सत्य को समझना नहीं चाहता ॥



बनता है , टूटा है ,
यही सावाल पूछता है हर बार ,
क्यूँ वह बन बन कर टूट गई हैं ॥

Thursday, June 18, 2009

ऐ ज़िन्दगी तुझे भरपूर जिया है

ऐ ज़िन्दगी तुझे भरपूर जिया है
इसकी राह के हर मोड़ को
मुकां समझ कर लिया है मैं ने ॥
ख्याल तो बहुत इस दिलो दिमाग में आए
मगर उनका इज़हार करना न आया
कभी कलम टूट गई
कभी स्याही सूख गई
कविता कभी आटे में गूंद गई
कहानी कभी चप्पल में घिस गई
मगर डायरी के पन्नों पर
किसी आने वाले कवि को जन्म दिया है ॥
ऐ ज़िन्दगी ------------------
मन जब कभी उदास हुआ है
दुनिया की बेरूखी से पासबाँ हुआ है
ब्रश भी उठाया है
रंग भी बिखेरे हैं
कैनवस पर मन को उतारा है
रंगों से बहुत खिलवाड़ किया है
दुनिया को कुछ मिला हो या नहीं
अपनें जीने का हर बार नया रंग ढूढ़ लिया है ॥
ऐ ज़िन्दगी ---------------------
एक बार साज़ बजा कर
कोई संगीतकार नहीं होता
चाहत हो किसी की कितनी भी
कोई गीतकार नहीं होता
स्वर और साज़ की एक दुनिया और भी है
सुनने का भी अपना अंदाज़ है
दीवानों और मस्तानों की तरह
जी भर कर इसका रस पान किया है ॥
ऐ ज़िन्दगी ------------------------
हर ज़िन्दगी यहाँ एक कहानी
हर शख्स एक अदाकार
इस नाशवान जग में
बनी हर चीज़ टूट जाती है
मर जाना है , हर किसी को
मगर ज़िन्दगी फिर भी जी जाती है
मिटटी के कई घरौंदे बनाकर
खुशिओं से झोली को भर लिया है ॥
ऐ ज़िन्दगी --------------------------॥

नियति

फूलों से हरदम मुस्कराना सीखा
कलियों से खिलने की चाह भरी जीवन में
पर काँटों में उलझा ,फट्टा आँचल कई बार
पैरों में कंकड़ चुभे कई हज़ार
कि रोना पड़ा कई बार ॥
नदी की कल कल गति से चलना सीखा
सागर से मिलने की चाह भरी जीवन में
ठोकरों ने सर फोड़ा कई बार
गिरे और उठना हुआ दुश्वार
कि रुकना पड़ा कई बार ॥
दीपक की बाती से पल पल जलना सीखा
दूसरों को दे सकूँ प्रकाश इस जीवन में
आंधियां और तूफान आए ऐसें हज़ार
बिखर गया तेल और सहर से पहले
ही बुझाना पड़ा कई बार ॥
सुनी वाणी संतो की ,सत्य का मार्ग दिखा
करूँ कर्मठ साधना मैं भी इस जीवन में
भाग्य की रेखाओं को समझना दुश्वार
जो चाहे वह पाए ,ऐंसा नहीं रे संसार ,नियति
के सामने झुकना पड़ा बार बार ॥

Wednesday, June 17, 2009

सपने

कई बार जीवन में यों लगा
टूट गई हूँ
टूट कर बिखर गई हूँ --इस धरा पर
आँखें बंद की हैं
यह सोच कि यह जीना भी क्या जीना ?
पर न जाने कौन
इन टूटे बिखरे टुकडों को समेट ता है
मेरी आँखें खोल मुझे दिखाता है
देख यह क्या टूटा है
यह तू नहीं
तेरे बनाये ताश के महल थे
उन ताश के पत्तों की गद्दी सी
फिर मेरे सिरहाने रख देता है ,
ले फिर से संजो सपने
जन्म दर जन्म
संजोती रह , तब तक , जब तक
यह सच न हो जायें
सच्चाई यां , संस्कृतियाँ , सभ्य ताएँ
पहले सपना बन कर उभरती हैं
कल्प नाएँ बन कर जन्म लेती हैं
विचार बन भाप हवा में जाते हैं
फिर बादल बन धरा पर बरसते हैं
मेरे टूट कर बिखरने का
अहसास ख़त्म होने लगता है
एक नई किरण फूटने लगती है
उषा की लाली सा आभास होने लगता है
हाँ अवश्य एक दिन
मेरे देश का हर बच्चा पड़ेगा
हर जवान को काम मिलेगा
बुरा ई तो मरती नहीं
पर भरष्टाचार का सर अवश्य कुचलेगा
अपने देश की संस्कृति के सम्मान में
पनपेगी आने वाली पीड़ी
लिए मशाल हाथ में
बुद्ध और गाँधी की संतान
दीप जलाएगी स्नेह के , सत्य के
विशव शान्ति के पथ पर
मरेंगे हम
मगर नहीं मरेगें यह सपने
इन सपनों को बादल बन बरसना है ॥

एक आग

मेरे अंदर एक आग है
तमन्नाओं की
अरमानों की
कल्पनाओं की
बाहर की राह पा गई
तो इक मशाल होगी
जो कई अंधेरे घरों में
दीप जलाएगी
बुझे हुए उदास चेहरों पे
खुशी की लहर लाएगी
यह जो मन के अंधेरों में
घर के पिछवाद्दे गंदगी सी भरी है
उसे बुहार जायेगी
जीवन समस्या ही तो नहीं
कुछ और भी है
प्यार के मीठे यह गीत गायेगी
मगर सवाल बाकी है ?
राह न मिली तो
यह मुझे जला कर मिटा जायेगी
अगणित लाखों करोडों की तरह
यह भी माती से आई अर्थ हीन हो
मट्टी मैं मिल जायेगी ॥

जीवन यात्रा

ए ज़िन्दगी तुझ से सवाल पूछते पूछते
मैं ख़ुद एक सवाल बन गई हूँ ,
अंधेरों मैं रौशनी ढूढ़ते ढूढ़ते
ख़ुद एक मशाल बन गई हूँ ।

न किसी ने सवाल सुने
न था कोई जो उनके जवाब देता ,
मगर किस्मत का तकाज़ा देखो
गली गली का चर्चये हाल बन गई हूँ ।

प्यार पाने को तड़पा मन एक दिन
की बदल गए मने स्नेह संसार के ,
यह नया अर्थ प्रेम का समझाते समझाते
बेशुमार प्यार का अहसास पा गई हूँ ।

पाने की चाह में खोया बहुत कुछ
पाने और खोने में अन्तर कहाँ ,
फलसफा जीवन का यों समझते समझते
संसार में अपने आने का सार पा गई हूँ ।

कविता क्या है ----

जो तुम सुनो
तुम्हें छू जाए
और तुम्हारी रूह तक उतर जाए ।
____वह कविता ।
कभी तुम्हें गुदगुदाए
और वह गुदगुदी
किसी छलकती आँख तक पहुँच जाए ।
____वह कविता ।
जो सोच बदले
राह मोडे
तुम्हारा नया ताना बाना बुन जाए ।
_____वह कविता ।
अकेले चल रहे
मुसाफिर को रोके
भागती भीड़ को बाँध ले जाए ।
_____वह कविता ।
कविता क्या नहीं
कविता बहुत कुछ
बशर्ते की वह समझ आ जाए ।

Tuesday, June 16, 2009

प्रिय मंजुल के नाम...

मैं अक्सर अपने से बातें करती हूँ
उन्हें कभी लिख देती हूँ
वह मेरे अपनों को कविता लगती है
वैसे मैं कोई कवि नहीं ।
मेरा कवि सा कोई अस्तित्व नहीं
साहित्य से जुड़ा कोई नाम नहीं
मेरे गुरू के भावों की यह अभिव्यक्तियाँ
मैं कुछ नहीं मेरी कोई छवि नहीं ।
प्रकृति मैं बरसती कृपा की एक बूँद
उसके अनंत प्रकाश की एक किरण
तुम्हारे स्नेह स्पर्श ने पन्ने खोल दिए
वरन मैं ऊपर उठता कोई रवि नहीं ।
तुम्हारी तरह यह भाव जग को भा गए
किसी के मन को मुझसा सकूं दे गए
शुकराना प्रभु के आशीष का तो होगा
मगर श्रेय का हक़दार तुम्हारे सिवा कोई नहीं ॥

एक और दस्तक

सविता के धरती पर पग
धरने से पहले ,एक दस्तक
होती है मेरे द्वार पर -
मानो कोई कहता है
उठो :;
ब्रहम महूर्त बेला है
सुनो पवन की मन भावन गूंज
चिडिओं की चहक
कलिओं की कुयांरी महक
देखो तारों की फीकी पड़ती चमक
पूर्व दिशा के आकाश की दमक
आत्म सात हो लो
प्रकृति के इस शांत स्निग्ध वातावरण से
और फिर सोचो ;
कौन हो तुम -
कहाँ से आई हो
मंजिल है क्या
जाना कहाँ -
यह सुबह से शाम तक
नश्वर काया का सजना संवारना
खाना पीना और मौज मस्ती
क्या यही जीवन ?
अपनों के सुख और दर्द
आसुओं और मुस्कानों के बीच जिन्दगी ढलती
क्या यही जीवन का सच ?
हाँ यह भी सच है जीवन का
मगर शंडभंगुर
पानी के बुलबुले सा
सागर की लहरों सा
याद रखना है
वह अन्तिम राह तो मूक अकेली है
वहां न कोई संगी न साथी है
तयारी रख
प्रकाशित कर मन इतना
की उस पथ जब पग धरो
अंधेरा न हो राहों मैं

दुल्हन सा सजा मन को
इधर आँख बंद हो
उधर जा मिलो पिया की बाँहों मैं । ।

Monday, June 15, 2009

पहली दस्तक

यहीं से उठी थी चाह
भगवान को मिलने की चाह
उसके घर का पत्ता
पूछने की लगन
यहाँ हर आने वाला
जाता है उसके घर
कौन हैं हम
कहाँ से आते हैं
कहाँ जायंगे
यह इस सृष्टि के प्रशन
सदियों से पूछता रहा इन्सान
किसको उत्तर मिले और क्या मिले
तब से ढूंढ रही हूँ
मिलता है कई बार , आँख मिचौनी खेलता है हर बार ।

तभी पहली बार दस्तक दी थी
किसी ने मेरे द्वार पर
मैं दौडी थी ,द्वार खोला था
एक प्रकाश पुंज -एक दिव्य नाद
आओ मैं तुम्हें ले चलूँ
उस प्रभु के पास
मैं ने उस प्रकाश को पकड़ना चाहा था
उस नाद के पीछे दौड़ना चाहा
पल मैं ही सब एक दम लुप्त
पर भूली नहीं हूँ वह प्रकाश
वह प्रकाश चमकता रहे
हम साक्षी बन उसे देखते रहे , देखते रहें ।

बचपन ------

काश बचपन ही बस जीवन होता
सुबह की सुनहरी धूप सा
सुखद हवा के झौंके सा
झर झर बारिश की बरसती बूंदों सा
कलियों सा खिला खिला
तितलियों के रंग तरंगों सा सुंदर होता
काश बचपन ही बस जीवन होता
चड्ढी पहन कर बारिश मैं भीगता
कच्चे पक्के आमों से खेलता खाता
मां की गोद मैं लोरी सुनता
पिता की उंगली पकड़ अलमस्त
जग के भले बुरे से बेखबर झूमता होता
काश बचपन ही बस जीवन होता
क्यूँ जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी
क्यूँ अपने अपनों को छोड़ जाते
जाते तो कहाँ जाते
काश इन सब सवालों का
जवाब मुस्कराते बचपन को न धुंदन होता
काश बचपन ही बस जीवन होता

और वह हंसती खेलती गुडिया हजारों सवालों मैं घिर गई
वह रात रात जागती
आसमान के चाँद सितारों से पूछती
आख़िर वह भगवान है कौन
जिसके बुलाते ही उसके बाबा
बिना उनको बताए बिना उनसे मिले
एक दम चले गए \
उसके बाबा को ही
भगवान ने क्यूँ बुलाया
क्या उसके पास अपने बाबा न थे ?
वह जानती है
उसके बाबा सब से अच्छे थे
काश भगवान की माँ ने
उनको सिखाया होता
दूसरों का कुछ कितना भी अच्छा क्यूँ न हो
ले नहीं लिया जाता

और वह भोला सा बचपन कहीं पीछे छूट गया

Sunday, June 14, 2009

क्या भूलूं क्या याद करूँ ---

वानप्रस्थ की देहलीज़ पर बैठ कर
जी चाहता है ,
जीवन की कहानी यद् करूँ ,
और वोह यादें
कुछ कविता के बोल हों ,
गीतों की गुनगुनाहट हो
स्वरों का झुर्मट हो ,
जिसमें मैं कहीं खो जाऊँ
पर वह परम प्रकाश दमकता रहे
जिसे सुनने वाला - बस सुने - शौक से सुनता रहे /
वैसे तो ---
हर इन्सान अपनी एक कहानी
अपने साथ लाता है
जीवन के कड़वे मीठे अनुभव
उसके हर मोड़ को
हर आयाम को मुकाम देते हैं ,
मज़ा तब है जब वह प्रकाश साथ चलता रहे ,
तुम साक्षी बन उसे देखो और बस देखते रहो /