Tuesday, August 4, 2009

बंधन

बंधन जब जुड़ते हैं
तो खुशी की एक लहर सी
ज़िन्दगी गुनगुनाती एक साज़ होती है
मानो चारो और फूल खिल गए हों
ओर झूमता हो मन
कि सपने सूहाने सच ही होंगे ॥
बंधन जब टूट ते हैं
तो एक चरमराती
दर्द से चीखती सी आवाज़ होती है
मानो कांच टूटे हों ,बिखर गए हों
ओर रोता हो मन
कि यह अब क्या जुड़ेगें ॥
मगर कभी बंधन खुलते हैं
तो शमशान के मौन की तरह
निशब्द चीत्कार करती आवाज़ होती है
न टूटने का दर्द न जुड़ ने की आस
कि शांत हो जाता है मन
अब किसी से क्या मिलेगें ॥

5 comments:

  1. इस अद्भुत रचना की प्रशंशा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं...आप बहुत ही अच्छा लिखती हैं...बधाई...
    नीरज

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  2. बहुत सुन्दर व्याख्या--बंधन की।चाहे जुडते बंधन हों,चाहे टूटते, चाहे खुलते---प्रेम सभी में अन्तर्निहित होता है।

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  3. rishton, bandhanon के tootne और judne को बहुत ही adhbudh तरीके से utaara है आपने इस रचना में......... बहुत khoob

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  4. लगता है मानो एक संथ ,शांत धीर गंभीर व्यक्ति अपने जीवन का गुर बता रहा है ..और हम एक विशाल सरोवर के किनारे बैठ, उसे महसूस कर रहे हों...

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