Tuesday, July 28, 2009

ढलती साँझ

ढलती साँझ में
देखती हूँ पड़ी है सिराहने
एक गठरी अधूरे सपनों की
अधूरी चाहतें कुछ अपनों की
इनको यहीं कहीं अनजानी थाह
में दफना दूँ ,
साथ गई तो --घनेरा दर्द सा ले कर
वापिस आएँगी मेरे साथ
कई दिनों की पुरानी
बास्
लायेंगी अपने साथ
लो दफना दिए ।

ढलती साँझ में
काले बादलों की टुकडियों में
चमकती पीली किनारी सी देखी है कभी
वैसे ही बिल्कुल वैंसे ही
चमक उठते हैं यह भाव
और देखती हूँ -----
झोली भरी है --जिसमें भरा
प्यार मेरे अपनों का
आशीष माता पिता ,गुरुजनों की
गुरुदेव का सानिध्य
और संतोष पूर्ण समर्पण का
इनसे तो मोह घनेरा है ,
संतुष्ट हूँ साथ जायेंगे
फिर मेरे साथ आयेंगे
और सवारूंगी यह भाव
कुछ भी अधूरा नहीं होगा
इस जीवन की सारी सीख
अपनें साथ लाऊंगी
तब साधना की शुरुआत न होगी
साधक जो चल आया
उन क़दमों की पहचान होगी
वह यात्रा की शुरुआत न होगी
अधूरी यात्रा की पूर्णाहूति होगी
वह मोक्ष पथ तो होगा
पर मोक्ष भी होगा ॥

6 comments:

  1. bahut sundar hai aapake bhaw our shabad jo ek sunadar rachana ka nirmarn kar dale hai .....badhaaee

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  2. अपने अनुभव और भाव को आपने खूब सहजता से समेटा है इस रचना में जिसमें अंततोगत्वा आशा का संचार भी है। सुन्दर प्रस्तुति।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  3. गहरे अर्थ --- सुन्दर रचना

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  4. आपने बहुत अच्छा लिखा है मन के भावों को

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  5. bahut sundar aatm sntish ke bhav kavita ko purnta de gye .

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