Wednesday, July 22, 2009

मन कहता है

मन कहता है
कविता लिखी नहीं जाती

वह फूट तीहै --निर्झर झरने सी
कभी फूलों की मुस्कान की तरह
कभी तितली के रंग बिरंगे रंगों सी
जुगनूँ की चाप छोड़ती चमक की तरह
कभी पहाडों और चट्टानों का
सीना चीरती ,
बह उठती है गंगा के पावन स्त्रोत की तरह
प्रकृति भेज उसे काशी हरिद्वार
शांत कर देती उसके उदगार ।
मन के दलियारे से
गई हूँ गंगा किनारे
वहां से कुछ बूंदे
अलकों में समेट
कुछ छोटे छोटे कलश भर लाई हूँ
उसके किनारे पड़े
छोटे चमकते कंकड़ भी बटोर लाई हूँ
मुखरित हुआ है मन
तुम्हे कुछ सुनाने चली आई हूँ

4 comments:

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  2. वह फूट तीहै --निर्झर झरने सी
    कभी फूलों की मुस्कान की तरह
    कभी तितली के रंग बिरंगे रंगों सी
    जुगनूँ की चाप छोड़ती चमक की तरह
    bahut sunder kavita aise hi hoti hai.

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  3. मन कहता है
    कविता लिखी नहीं जाती
    वह फूट तीहै --निर्झर झरने सी
    कभी फूलों की मुस्कान की तरह
    कभी तितली के रंग बिरंगे रंगों सी
    जुगनूँ की चाप छोड़ती चमक की तरह
    कभी पहाडों और चट्टानों का
    सीना चीरती ,

    शायद आप का मन सत्य ही कह रहा है, अपने भी विचार कुछ ऐसे ही हैं

    सुन्दर प्रस्तुति.
    बधाई.

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  4. खुबसुरत अन्दाज आप की प्रस्तुति का ।

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