Sunday, June 21, 2009

अपनों सी दस्तक दो --

एक अनुरोध सैनिक मां और पत्नी का ------

दीपक बुझ गए न जाने कितने घरों के
आयो उनके आँगन में दीप जलाएं
अँधियारा उनका तो मिटेगा जरूर
हमारे रास्ते भी प्रकाश से भर जायें ।


धीरे धीरे सिसकती है कोई मां कहीं
कितने सिदूर पोंछ देती है देश की हिफाज़त
जो देश का ऋण चुका गए
आयो हम उनके ऋणों का हिसाब ले आयें ।


देश पर जान देने वालों की कुर्बानी पर
अमर ज्योति पर फूल चड़ते हैं हर साल
उनकी याद में रोने वाले अब भी रो रहे
आयो उनके आंसूं पों छे - मुस्कान दे आयें ।


बस थोड़ा सा समय निकालो
उनके दरवाजे पर अपनों सी दस्तक दो
लगे कोई उनका अपना लौट आया है
उनकी बुझी बुझी जिंदगी में बहार आ जाए ।

काम अकेले तो नहीं होगा
कल्पनाएँ तो बस सपने होते हैं
सोच से सोच , हाथ हाथ मिले
तो तेरी मेरी सोच इक प्रवाह बन जाए ।

2 comments:

  1. माँ और पत्नी की व्यथा,सैनिक के कुर्बानी के आगे तुच्छ है क्यो कि ये देश के प्रहरी अपनी कुर्बानी दे बहुतों को बचाते है ।

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  2. mere bhaav jagat main aapka svagat hai. meri kavitayen padhne ke liye dhanyavaad.

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