Tuesday, June 30, 2009

मुझे प्रतीक्षा है उस दिन की

मुझे ऐंसे लगता है ,
मेरे अंदर एक गहरा
उदगार का सागर है,
जो बाहर आना चाहता है ,
जो बाहर नहीं आता
न जाने क्यूँ ,
कभी राह नहीं मिलती
कभी समय नहीं होता ,और
कभी थाह नहीं मिलती ।
ज्यों दूध उबलता है
मगर कोई सतर्क पहरी
उसके गिरने से पहले
नीचे की ज्वाला को शांत कर देता है ।
ज्यों तूफान उठता तो है ,
बिना आवाज़ किए शांत हो जाता है ।
लहरें उठती तो हैं ,
बिना किनारों से टकराए
लौट जाती हैं ।
मुझे डर है ,
एक दिन ज्वाला मुखी
फटेगा ,उगलेगा ,

बन जावा फैलेगा ,
मगर क्या वह संचित दुःख होगा
या कोई कुंठाएं होगी
या अभिभूत स्नेह का सागर होगा
मुझे प्रतीक्षा है उस दिन की
धरती को कष्ट होगा कितना भी

वातवरण सहयोग नहीं देगा जितना भी ,
परन्तु ज्वाला मुखी फूटेगा
उबलेगा रतन अनमोल
मानवता पनपेगी

स्नेह फैलेगा ॥

4 comments:

  1. बहुत ही खुबसुरत

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  2. कभी राह नहीं मिलती
    कभी समय नहीं होता ,और
    कभी थाह नहीं मिलती ।

    beautifully put.

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  3. Behad, sanjeedaa, sulajhee huee, vichar dhara hai..!Aise lagta hai, shaant, athaah aur doortak tak faile saahilon waala darya hai, jiske kinare baith aapko sun rahe hain...aur wo aaphee hain..!

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