Tuesday, June 16, 2009

प्रिय मंजुल के नाम...

मैं अक्सर अपने से बातें करती हूँ
उन्हें कभी लिख देती हूँ
वह मेरे अपनों को कविता लगती है
वैसे मैं कोई कवि नहीं ।
मेरा कवि सा कोई अस्तित्व नहीं
साहित्य से जुड़ा कोई नाम नहीं
मेरे गुरू के भावों की यह अभिव्यक्तियाँ
मैं कुछ नहीं मेरी कोई छवि नहीं ।
प्रकृति मैं बरसती कृपा की एक बूँद
उसके अनंत प्रकाश की एक किरण
तुम्हारे स्नेह स्पर्श ने पन्ने खोल दिए
वरन मैं ऊपर उठता कोई रवि नहीं ।
तुम्हारी तरह यह भाव जग को भा गए
किसी के मन को मुझसा सकूं दे गए
शुकराना प्रभु के आशीष का तो होगा
मगर श्रेय का हक़दार तुम्हारे सिवा कोई नहीं ॥

1 comment:

  1. यह कविता प्रिय मंजुल के नाम है , जिसके प्रोहात्सन से मैंने अपनी नई पुरानी कवितायों को अपनी डायरी से बाहर निकाला और वह आज आप के बीच मैं हैं ।

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